दुख और अशांति का कारण और निवारण

हमारे जीवन में आकस्मिक दुख सुख आते-जाते रहते हैं। हर व्यक्ति के जीवन में दुख और सुख आया करते हैं। इनसे सुर मुनि सूर्य मुनि देव दानव कोई भी नहीं बचा ।भगवान राम तक इस कर्म की गति से नहीं छूट सके। सूरदास जी ने ठीक ही लिखा है कि :--
करम गति टारे नहीं टरै।
 गुरु वशिष्ट पंडित बड़ गयानी, रचि पचि लगन धरै।
 पिता मरण और हरण सिया को ,वन में विपत्ति परै ।।
भगवान राम जी के  वशिष्ठ जैसे गुरु के होते हुए भी कर्म की गति को नहीं टाल सके ।उन्हें भी पिता की मृत्यु का शोक, सिया के हरण एवं वन में विपत्तियों को सहना पड़ा । यह विपत्तियां अकस्मात नहीं आ जाती हैं। बल्कि यह अपने कर्म की गति होती है ,ईश्वर भी नाराज होकर दुख दर्द नहीं देता है 8। यह समझना हमारी भूल होगी ,क्योंकि हमारे कर्म ही मुख्य होते हैं जो हमें दुख यह अशांति देते हैं ।
रामायण का मत भी इस संबंध में यही है कि :--
काहु न कोउ दुख सुख कर दाता ।
निज- निज कर्म भोग सब भ्राता ।।
इस संसार के किसी भी प्राणी या पदार्थ में किसी को दुख देने की शक्ति नहीं है। सब लोग अपने ही कर्मों का फल भोंगते हैं।और उसी कर्म भोग से रोते हैं, चिल्लाते हैं, बिलखते रहते हैं। ईश्वर ने कैसी कठोर व्यवस्था बनाई हुई है कि ,जो जीव के पीछे से कर्मों का फल तैयार करती रहती है ।जिस प्रकार मछली पानी में तैरती है तो, उसकी पूंछ पानी को काटती हुई पीछे-पीछे एक रेखा सी बनाती चलती है। सांप रेंगता है तो रेत पर उसकी लकीर बनती है। जो काम हम करते हैं उन कामों के संस्कार बनते जाते हैं। हमारे बुरे कर्मों के संस्कार स्वयं की बोई हुई कांटेदार झाड़ी की तरह हमारे लिए ही दुखदाई बन जाती है । तो आज हम इस लेख में दुख और अशांत के कारण और उनके निवारण के उपायों के बारे में चर्चा करेंगे।100%

सुख तो मनुष्य की स्वाभाविक स्थिति है :-

अच्छे कर्म करना हमारा स्वभाव है। इसलिए सुख की प्राप्ति होना भी स्वाभाविक ही है। कष्ट हमें दुखसे होता है, दुख से ही लोग डरते, घबराते हैं। उसी से छुटकारा पाना चाहते हैं। जिस प्रकार स्वास्थ्य प्राप्त की स्थिति और रोगों की चिकित्सा दोनों अलग-अलग है ।इसी प्रकार सुख और दुख भी के दो अलग विज्ञान हैं। जैसे कि स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए पौष्टिक पदार्थों का सेवन किया जाता है ।उसी प्रकार से सुख की वृद्धि के लिए हमें धर्म का आचरण करना चाहिए। जिस प्रकार रोगों से छुटकारा पाने के लिए उसका डायग्नोसिस और ट्रीटमेंट जानने की जरूरत है। उसी प्रकार से दुख से छुटकारा पाने के लिए हमें अपने कर्मों की गणपति की जानकारी को समझना होगा दुखों के कारण को छोड़ दे तो हमें सहजता से दुखों से मुक्ति मिल जाती है आगे हम तीन प्रकार के कर्म उनके तीन प्रकार के स्वभाव और तीन तरह के फलों की चर्चा करेंगे

दुख तीन प्रकार के होते हैं :-

  • दैहिक दुख :- दहेज दुख शारीरिक शारीरिक दुख हुआ करते हैं यह शारीरिक पापों की वजह से हुआ करते हैं।
  • दैविक दुख  :- यह दुख मानसिक कष्ट होते हैं। और यह शारीरिक और मानसिक पापों के वजह से या फिर सिर्फ मानसिक पापों की वजह से पैदा होते हैं।
  • भौतिक दुख :- भौतिक दुख या भौतिक आपदाएं हमारे समाज के सामाजिक पापों की वजह से पैदा हुआ करते हैं। क्योंकि सभी मनुष्य एक दूसरे से जुड़े होते हैं।

       दैहिक दुख --

ए शारीरिक दुख होते हैं। और यह शरीर को हुआ करते हैं। और यह शारीरिक पापों के फलस्वरूप पैदा होते हैं। जैसे कि कोई रोग होना, चोट लगना, आघात, जहर आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट दैहिक दुख के अंतर्गत आते हैं ।दैहिक दुख प्रायः हमारी गलत रहन-सहन और लाइफस्टाइल की वजह से उत्पन्न होते हैं ।जैसे यदि कोई नुकसानदायक अखाद्य पदार्थ हम खा लेते हैं या पेट में हानिकारक वस्तु जमा हो जाती है। तो फिर शरीर उसे उल्टी या दस्त से निकाल कर बाहर करता है। शरीर में मिलने वाले रोग प्रायः शारीरिक प्रकृति से संबंधित होते हैं ।हमारे शारीरिक दुर्गुण, आहार विहार में गड़बड़ी आदि की वजह से दैहिक रोग हुआ करते हैं, और इससे हमें परेशानियां होती रहती हैं। इनमें सुधार करने के लिए हमें आयुर्वेद एवं प्राकृतिक रहन-सहन और उपचार की ओर ध्यान देना चाहिए ।जिससे हम दैहिक दुखों से काफी हद तक बचे रह सकते हैं।

 दैविक दुख  --

दैविक दुख वे दुख कहे जाते हैं जो मन को हुआ करते हैं ।जैसे  चिंता रोग, आशंका रोग क्रोध ,अपमान, शत्रुता, भय ,शोक आदि। इस प्रकार के रोग दैविक दुख होते हैं, यह हमारे दुखों का मानसिक कारण होते हैं। दैविक दुख अर्थात मानसिक कष्ट उत्पन्न होने का कारण वे मानसिक पाप हैं। जैसे जो हम अपनी स्वेच्छा की वजह से ,अपनी  दुर्भावना से प्रेरित हो कर करते हैं। जैसे किसी से  जलन होने के कारण उसका अहित करना, कि किसी के द्वारा किए गए उपकार के बदले में उस का अहित करना यानी यानि कृतघ्नता । छल या कपट करना ,दंभ ,घमंड, किसी के प्रति क्रूरता का व्यवहार, अपनी स्वार्थपरता आदि ।इन कुविचारों के कारण जो वातावरण हमारी मस्तिष्क में उमड़ता ,घूमता रहता है, उससे हमारी अंतःकरण या अंतः चेतना पर उसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है जैसे कि धुए के कारण दीवारें काली पड़ जाती हैं । या तेल में भीगने की वजह से कपड़ा गंदा हो जाता है। हमारा स्वभाव ,हमारी आत्मा का स्वभाव स्वभाव पवित्र है। उसके ऊपर जब हम अत्यधिक पाप करते है और कुविचारों को जमा होने देते हैं। तब हमें दैविक दुख हुआ करते हैं ।हमारी आत्मा, अपने ऊपर  इन पापों को ,कुविचारों को जमा होने नहीं देना चाहतीहै। इस प्रकार हमारी अपनी तीव्र इच्छा, जानबूझकर किए गए पापों को निकाल कर बाहर करने के लिए हमारी आत्मा व्याकुल हो उठती है। हम उसे जरा भी जान नहीं पाते किंतु आत्मा अंदर ही अंदर, भीतर ही भीतर उस पाप के भार को हटाने के लिए अत्यंत व्याकुल हो उठती है। और हमारे अंतर्मन में ,हमारे मन में चुपके चुपके ऐसे अवसर एकत्रित करने में लग जाता है, जिससे वह पाप के भार से मुक्त हो सके। अपमान, असफलता ,किसी का विछुडना, दुख आदि प्राप्त हो। ऐसे अवसरों को  मनुष्य कहीं ना कहीं से, एक ना एक दिन ,किसी भी प्रकार से खींच लाता है। ताकि उन दूरभावनाओं और दुष्कर्म के पास संस्कारों का इन अप्रिय स्थितियों में समाधान हो जाए ।

शरीर द्वारा किए हुए चोरी ,डकैती, व्यभिचार, बलात्कार अपहरण, हिंसा आदि में हमारा मन ही प्रमुख होता है। हत्या करने में हाथ का कोई स्वार्थ नहीं है, बल्कि मन के आवेश की पूर्ति है ।इस प्रकार के कार्य जिनको करते हुए हमारे इंद्रियों को सुख ना पहुंचता हो मानसिक पाप कहलाते हैं। ऐसे पापों का फल मानसिक दुख होता है। स्त्री ,पुत्र आदि स्वजनो की मृत्यु का होना ,धन नाश, लोक निंदा ,समाज में अपमान, पराजय ,असफलता का मुंह देखना आदि मानसिक पापो की वजह से हैं।

 इन प्रकार की दुखों से मनुष्य की मानसिक वेदना, मानसिक पीड़ा बढ़ जाती है। शोक और संताप उत्पन्न होता है। दुखी होकर रोता चिल्लाता है ।आंसू बहाता है ।अपना सिर धुनता है और इससे बैराग्य के भाव उत्पन्न होते हैं ।और भविष्य में अधर्म ना करने और धर्म में लग जाने की प्रवृति बढ़ती है। प्राय देखा गया है कि मरघट में स्वजनों की चिता रचते हुए ऐसे भाव उत्पन्न होते हैं कि, जीवन का सदुपयोग करना चाहिए ।धन के नष्ट होने पर मनुष्य भगवान को पुकारता है। पराजित और असफल व्यक्ति का घमंड चूर हो जाता है। नशा उतर जाने पर वह होश की बात करता है। मानसिक दुखों का एकमात्र उद्देश्य मन में जमे हुए सदियों के ईर्ष्या, कृतघ्नता स्वार्थपरता, क्रूरता, निर्दयता, छल, कपट, दंभ, दुर्भावना, घमंड की सफाई करना होता है । यह दुख इसलिए आते हैं कि आत्मा के ऊपर जमा हुआ प्रारब्ध कर्मों का पाप संस्कार निकल जाए। पीड़ा और वेदना की धारा उन पूर्व कृत्य ,किए गए प्रारब्ध कर्मों के निकृष्ट संस्कारों को धोने के लिए प्रकट होते हैं।

 जन्मजात रोग जन्मजात अपूर्णता एवं पैतृक रोगों का कारण पूर्व जन्म में उन अंगों का किया गया दुरुपयोग होता है। मरने के बाद सूक्ष्म शरीर रह जाता है ।नए शरीर की रचना इस  सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही होती है। इस जन्म में जिस अंग का अत्यधिक दुरुपयोग किया जा रहा है, वह अन्य सूक्ष्म शरीर में अत्यंत कमजोर हो जाता है ।निर्बल हो जाता है। जैसे कोई व्यक्ति यदि अति मैथून करता हो तो सूक्ष्म शरीर का वह अंग निर्बल होने लगेगा । फलस्वरूप संभव है कि वह अगले जन्म में नपुंसक हो जाए । यह नपुंसकता केवल कठोर दंड नहीं है बल्कि सुधार करने का एक उत्तम तरीका भी है । शरीर और मन के सम्मिलित पापों के समाप्त करने के लिए, शोधन के लिए ,जन्मजात रोग मिलते हैं या बालक अंग भंग उत्पन्न होते हैं । अंग भंग निर्बल होने से उस अंग को अधिक काम नहीं करना पड़ता। इसलिए सूक्ष्म शरीर का वह अंग विश्राम पाकर अगले जन्म के लिए फिर से तरोताजा हो जाता है। साथ ही मानसिक दुख मिलने से मन की पीडा़ बढ़ती है और मन का पाप भी धुल जाता है ।

मानसिक पाप भी जिस शारीरिक पाप के साथ घुला मिला होता है वह यदि राज्य के दंड और समाज के दंड या प्रायश्चित द्वारा इस जन्म में शोधित नहीं हुआ तो अगले जन्म के लिए जाता है। परंतु यदि पाप केवल शारीरिक है या उसमें मानसिक पाप का मिश्रण कम मात्रा में है, तो उसका शोधन शीघ्र ही शारीरिक प्रकृति द्वारा हो जाता है। जैसे नशा पिया और कुछ समय बाद उन्माद आया, जहर पिया मृत्यु हुई, आहार-विहार में गड़बड़ी हुई बीमार पड़े, इस तरह शरीर अपने साधारण दोषों की सफाई जल्दी-जल्दी कर लेता है और इस जन्म का भुगतान इस जन्म में कर जाता है। किंतु गंभीर शारीरिक दुर्गुण जिनमें मानसिक जुड़ाव भी होता है अगले जन्म मे फल प्राप्त करने के लिए सूक्ष्म शरीर के साथ जाते हैं ।


  भौतिक दुख- 


भौतिक कष्टों का कारण हमारे सामाजिक पाप होते हैं ।संपूर्ण मनुष्य जाति एक दूसरे से एक धागे से बंधी हुई है। आत्मा सर्वव्यापी है ।एक दुष्ट व्यक्ति अपने माता पिता को लज्जित करता है ।अपने घर व परिवार को शर्मिंदा करता है ।वह इसलिए शर्मिंदा होते हैं कि उस व्यक्ति के कार्यों से उनका खुद का कर्तव्य भी जुड़ा हुआ होता है। अपने पुत्र कुटुंबी या घर वाले को हमने सुशिक्षित नहीं किया, सदाचारी नहीं बनाया और उसे दुष्ट बन जाने दिया। यहाँ इसकी आध्यात्मिक जिम्मेदारी परिवार वालों की भी है ।कानून द्वारा अपराधी को ही सजा मिलेगी। किंतु परिवार वालों की आत्मा स्वयं ही शर्मिंदा होगी क्योंकि उनकी आत्मा यह गुप्त सत्य स्वीकार करती है कि, हम भी किसी हद तक इस मामले में अपराधी हैं । सारा समाज एक धागे से बंधा होने के कारण आपस में एक दूसरे की हीनता या दुष्टता के लिए जिम्मेदार है ।पड़ोसी का घर जलता रहे और दूसरा पड़ोसी खड़ा खड़ा तमाशा देखे तो कुछ देर बाद उसका भी घर जल सकता है ।मोहल्ले के एक घर में हैजा फैल जाए और दूसरे लोग उसे रोकने की चिंता ना करें तो उन्हें भी हैजा हो सकता है। कोई व्यक्ति किसी की चोरी, बलात्कार, हत्या, लूट आदि होती हुई देखता रहे और सामर्थ्यवान, शक्तिमान होते हुए भी उसे रोकने का प्रयास ना करें ,तो समाज उससे घृणा करेगा। और ईश्वर के कानून के अनुसार वह भी दंड का भागी समझा जाएगा। ईश्वरीय नियम है कि हर मनुष्य स्वयं सदाचारी जीवन बिताएं और दूसरों को अनीति पर ,कुमार्ग पर ना चलने देने के लिए भरसक प्रयत्न करें ।यदि देश या जाति अपने तुच्छ स्वार्थों में लिप्त होकर दूसरों के लिए कुकर्म करें ।दूसरों के कुकर्म को रोकने और सदाचार बढ़ाने का प्रयत्न ना करें तो उसे भी दूसरों का पाप लगता है। उसी स्वार्थपरता के कारण सामूहिक पाप से सामूहिक दंड मिलता है ।भूकंप, अतिवृष्टि दुर्भिक्ष ,अकाल ,महामारी ,महायुद्ध के कारण ऐसे ही सामूहिक पाप या दुष्कर्म हुआ करते हैं। जिनमें स्वार्थ की प्रधानता हो जाती है और परोपकार की उपेक्षा की जाती है ।

प्रायः यह देखा जाता है कि अन्याय करने वाले अमीरों की अपेक्षा भोले भाले लोगों पर दैवी प्रकोप अधिक होते हैं ।अतिवृष्टि ,अनावृष्टि का कष्ट गरीब किसान को ही अधिक सहना पड़ता है। इसका कारण यह है कि अन्याय करने वाले से अन्याय सहने वाला अधिक बड़ा पापी होता है । कहते हैं ना कि *बुजदिल जालिम का बाप होता है *।कायरता में यह गुण है कि वह अपने ऊपर जुल्म करने वाले को किसी ना किसी को न्योता देकर बुलाता है। भेड़ की ऊन गडरिया छोड़ देगा तो दूसरा व्यक्ति कोई ना कोई उसे काट लेगा।

कायरता ,कमजोरी, अज्ञान, अविद्या, स्वयं बहुत बडे़ पाप हैं । ऐसे पापियों पर यदि भौतिक दुख अधिक हो तो कुछ आश्चर्य नहीं है । संभव है कि उनकी कायरता को दूर करने और स्वाभाविक सजगता ,सतेजता जगा कर निष्पाप बना देने के लिए ईश्वर के द्वारा यह घटनाएं उपस्थित होती है । ए भौतिक दुर्घटनाएँ सृष्टि के दोष नहीं है ,परंतु अपने ही दोष हैं । अग्नि में तपा कर सोने की तरह से शुद्ध करने के लिए यह कष्ट बार-बार कृपा पूर्वक आया करते हैं । और संसार को चेतावनी देकर सामाजिक निष्पाप ता बढ़ाने का आदेश दिया करते हैं ।

अशांति के कारण

 हर व्यक्ति अपने जीवन में सुख शांति चाहता है। किंतु बहुत कम लोगों के जीवन में सुख और शांति नसीब हो पाता है। इसके कारण पर हमें विचार करना चाहिए और इसके कारणों को हटा करके हम इस समस्या का निदान भी कर सकते हैं। और अपने जीवन को सुखी और संतुष्ट जीवन की ओर ले जा सकते हैं।

 दूसरों से किसी भी प्रकार की आशा ना करें:-

 हमारी अशांति का एक सबसे बड़ा कारण है ,दूसरों से आवश्यकता से ज्यादा आशाएं एवं अपेक्षाएं करना। जब कोई हमारी आशाओं के अनुकूल नहीं बैठता, तो हमें एक झटका सा लगता है। हमे क्रोध आता है । हमारे मन में बिछोह पैदा हो जाता है। और हमें समझ मे यह नहीं आता है कि किसी से भी अत्यधिक आशा, विश्वास या अपेक्षा करना हमारे लिए नुकसान दायक  सिद्ध होगा। इसलिए हमें किसी से अधिक आशा नहीं रखनी चाहिए । और ऐसा करना हमारे लिए राग और आशक्ति का कारण बनता है । जो हमारे लिए दुख और अशांति का कारण होता है ।

 जल्दबाजी में दूसरों का मूल्यांकन ना करें :-

अक्सर हम जल्दबाजी में या जीवन के कम अनुभव में या अनुभव हीनता के कारण हम किसी व्यक्ति का सही मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं । और उसे देवता मान बैठते हैं या उसकी पूजा करते हैं । या फिर उसे सीधे शैतान या दुश्मन मान बैठते हैं और उसके साथ गलत व्यवहार करते हैं ।  हर इंसान इन सभी गुणों का एक मिश्रण होता है । उसमे अच्छे गुण और बुरे गुण हो सकते हैं । उसकी अपनी स्वयं की एक विशेषता होती है। साथ में हर एक मनुष्य की अपनी मानवीय सीमाएं भी होती है । यह समझ हमे व्यक्ति से अनावश्यक आशा अपेक्षा रखने से बचाती है । और आगे चलकर हमें दुखी होने से बचाती है। इसलिए हमें किसी के प्रति , किसी के भी प्रति जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं करना चाहिए। लोगो के बारे में कोई नई राय नहीं बना लेनी चाहिए।

 इंद्रिय सुख जीवन में अशांति का बहुत बड़ा कारण है :-

 इंद्रिय सुख में जीवन के सुकून की तलाश भी दुख का एक बहुत बड़ा कारण बनती है। इंद्रियों के विषय सुख तो एक ऐसी आग की तरह होती है जिसमें जितना ही नहीं ईंधन डालते जाएंगे वह उतना ही अधिक धधकती जाती है । और कभी भी शांत नहीं होती है । इसमें आप अपना सारा तन, मन ,धन, प्राण, मान, जीवन सब कुछ स्वाहा कर दें, तो भी यह तृप्त होने वाली नहीं है । और इस प्रकार से अंत में जर्जर शरीर, कुसंस्कारी ,बिगड़ैल मन ,पागल चित् और अत्यंत पश्चाताप से भरा आंतरिक उथल पुथल से भरा अंतःकरण ही बचता है। इसलिए इंद्रिय सुख मैं जीवन के अर्थ की तलाश करना दुख का कारण होता है।

 संयम एवं सदाचार पूर्ण जीवन जिए :-

 समझदार लोगो की जीवन की रीति और नीति अलग होती है। वे संयम एवं सदाचार पूर्ण जीवन जीते हैं। एक अनुशासित और संतुलित दिन चर्या का पालन करते हैं ।और जिसके फलस्वरूप वे स्वस्थ निरोगी और सुखी जीवन जीते हैं। शरीर को भी भगवान का मंदिर समझते हैं ।और उसमें आत्म संयम और नियमितता के द्वारा अपने आरोग्य की रक्षा करते हैं।  संयम और सदाचार पूर्वक जीवन जीने से अशांति दूर ही रहती है ।

धन ही सब कुछ नहीं है:-

समाज में लोग धन को ही सबकुछ मान बैठते हैं। और कभी भी सुख से चैन से नहीं रह पाते हैं। एक तो वे इस धन को कमाने में ही अपने जीवन का बहुत कुछ दाँव में लगा कर बैठे होते हैं । जो उनके जीवन में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न करता है ।और उनका मन हमेशा तनाव की स्थिति में होता है । और अंत में यदि धन का उपार्जन कर भी ले तो, उसकी सांज और संभाल के साथ वृद्धि को लेकर चिंताएं । उन्हें सताती रहती हैं। परिवार में अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते हैं। उनमें संस्कारों का रोपण नहीं कर पाते हैं। प्रायः बच्चों की उपेक्षा हो जाती है। ऐसे में भी आगे चलकर अर्जित  संपदा से कोई शौक नहीं प्राप्त कर पाते बल्कि उनकी चिंता धन के लोभी के शेर को ढूंढ लेने की तरह हमेशा खाए रहती है।